I’m absolutely thrilled today to share the work of a young poet who I have met through poetry, and through the persistent creeper of shared love for artistic truth that curls between poets and friends. Vimal’s work doesn’t sugarcoat it. There are no frills, no curved edges and child locks, just the bare nakedness of knowing, feeling and having seen. For the poet, poetry becomes the one real shot, an impulsive jolt of meaning that winds around its centrifugal energy every last stain of life - nothing more, or less, than speaking. That is what I want to leave you with today, as I share his words.
(To those for whom language is a barrier, maybe there will be translations on some future date. But otherwise, I would say, let the words wash over you anyway, the sounds, cadences, tone will touch you because you are freed from the baggage of comprehension. Try it! This is actually my approach to most poetry - to take it in as if I’m reading an unfamiliar language)
मेरे शहर में घुसेंगे तो मेरी बस्ती तक कभी नहीं पहुँच पाएँगे । शहर ऐसा डिज़ाइन किया है की वो बस्ती छुप जाए। मेरे बहोत से सहपाठी जो समाज के ऊँचे दर्जे से आते थे, वो एक आध बार या कुछ तो कभी मेरे घर नहीं आए । मैं ज़मील, मंज़िल, बदलया, अज्जु, कनचु, कालू इनके साथ पला बढ़ा । ज़मील बहोत अच्छा तैराक था पर वो लोहे की फेक्टरी में जाते जाते लोहे के रंग सा हो गया । मंज़िल को स्कूल आने से पहले अपने चाचा की दारू भट्टी की बॉटल उठा कर बेचना पड़ता। कालू को कभी पता नहीं चला की उसके अंदर एक बेहतरीन क्रिकेटर था, ताशा बजाने वाला नहीं । बदलया बचपन से सब्ज़ी बेचता रहा, कनचु मिट्टी के मटको में रम गया, अज्जु किताबों की दुकानो में पूरी उमर काम करता रहा और हम उसकी इंग्लिश पर हंसते रहे।
इस बस्ती से अपराध और नशे को बहोत क़रीब रखा गया था, सरकारी स्कूल इस बस्ती से ६ किलोमीटर दूर था । यहाँ मज़दूर बन जाना एक साहस का काम था, और सम्मानीय भी ।
मेरा मानना है की पूरे आदम समाज को इस बस्ती के हर एक बच्चे का सम्मान करना चाहिए जो अपराधी नहीं बना, जो नशे से बच गया, जिसके दिल में ऊँचे तबके प्रति ग़ुस्सा है पर वो इसे समाज की कुरीति मानता है, किसी एक ख़ास तबके की बनायी हुई साज़िश नहीं ।
मेरे घर के पास ही नदी थी, पर वो सट्टे-जुए-दारू की दुकानो कि बड़े-बड़े पहाड़ों से हो कर गुजरती थी। मैं जब इन सब पहाड़ों को पार कर के वहाँ पहुँचा, तो मुझे कविता मिली। मैं खुशनसीब था। मैं किसी ऐसे दूसरे को नहीं जानता, जिसके साथ ऐसा हुआ हो।
मैंने तो कविता को इसीलिए चुना की वो सबसे सस्ता था - पेन और काग़ज़ । कविता ने मुझे चुनते वक्त ऐसा नहीं सोचा ।




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